ऑस्ट्रेलियन जेनेटिक्स ऑफ डिप्रेशन स्टडी का मकसद क्लिनिकल डिप्रेशन को जन्म देने वाले उन कारणों की खोज करना है जो आनुवांशिक होते हैं. इस रिसर्च के नतीजे इस बीमारी के बेहतर इस्तेमाल की खोज में काम आएंगे. अभी डिप्रेशन के मरीजों को लगभग आंख बंद करके दवाइयां दे दी जाती हैं और उम्मीद की जाती है कि दवाओं का असर होगा और साइड इफेक्ट्स नहीं होंगे. लेकिन यह पता नहीं होता कि ये दवाएं कितनी असरदार होंगी. कई बार तो हफ्तों बाद पता चलता है कि दवा असर कर भी रही है या नहीं. कई बार ऐसा होता है कि एक ही दवा किसी पर असर करती है और किसी पर नहीं.
यूनिवर्सिटी ऑफ सिडनी के ब्रेन एंड माइंड सेंटर के प्रोफेसर इयान हिकी कहते हैं कि डिप्रेशन के जेनेटिक आर्किटेक्चर को समझने से इस समस्या को हल करने में मदद मिलेगी. प्रोफेसर हिकी इस स्टडी के को-इन्वेस्टिगेटर हैं. वह बताते हैं, "मनोविज्ञान में हमें इस बात का खासा नुकसान हुआ है क्योंकि हमारे पास कुछ क्लिनिकल कैटिगरीज हैं जिनके बारे में पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता कि इलाज का कैसा असर होगा. बाइपोलर डिप्रेशन इसकी एक बढ़िया मिसाल है क्योंकि एक ही ग्रुप में ऐसे मरीज भी होते हैं जो एंटि डिप्रेसेंट्स से ठीक होते हैं और ऐसे लोग भी होते हैं जिन पर दवाओँ का सिर्फ साइड इफेक्ट होता है."
इसलिए अब 20 हजार लोगों पर रिसर्च की जाएगी. इस स्टडी में शामिल प्रोफेसर निक मार्टिन बताते हैं कि उन्हें कैसे लोगों की जरूरत है. QIMR बर्गहोफर मेडिकल रिसर्च इंस्टिट्यूट में जेनेटिक एपिडेमियोलॉजी ग्रुप के प्रमुख मार्टिन कहते हैं कि वे ऐसे वॉलन्टियर्स खोज रहे हैं जिनकी उम्र 18 साल या उससे ज्यादा हो और जिन्हें कभी क्लिनिकल डिप्रेशन रहा हो अथवा अभी जिनका इलाज चल रहा हो.
वॉलन्टियर्स को 15 मिनट का एक ऑनलाइन सर्वे पूरा करना होगा और अपना स्लाइवा सैंपल डोनेट करना होगा. प्रोफेसर हिकी कहते हैं कि ये वॉलन्टियर्स एक घातक बीमारी की बेहतर समझ और इलाज खोजने में बहुत अहम योगदान देंगे.
ऑस्ट्रेलिया में हर सात में से एक व्यक्ति को जीवन में कम से कम एक बार क्लिनिकल डिप्रेशन होता है. प्रोफेसर हिकी बताते हैं कि इस बीमारी का असर इतना घातक होता है कि लोग अपंग हो जाते हैं, उनके परिवार टूट जाते हैं और बहुत से लोग अपनी नौकरी खो बैठते हैं.
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