बड़े बड़े ढोल बजाते कुछ लड़के-लड़कियां जब धमाल करते हुए सिडनी की सड़कों या स्टेज पर नजर आते हैं तो आंखें हैरत से थोड़ी खुलती जरूर हैं. सिर्फ भारतीयों की नहीं, विदेशियों की भी. खासतौर पर लड़कियों को ये विशाल ढोल बजाते देखना एक अद्भुत अनुभव होता है. हर ताल से ताल मिलाते शिवगर्जना के ये वादक ऑस्ट्रेलिया में भारत के अनोखे दूत हैं.
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बड़े बड़े ढोल बजाते कुछ लड़के-लड़कियां जब धमाल करते हुए सिडनी की सड़कों या स्टेज पर नजर आते हैं तो आंखें हैरत से थोड़ी खुलती जरूर हैं. सिर्फ भारतीयों की नहीं, विदेशियों की भी. खासतौर पर लड़कियों को ये विशाल ढोल बजाते देखना एक अद्भुत अनुभव होता है. हर ताल से ताल मिलाते शिवगर्जना के ये वादक ऑस्ट्रेलिया में भारत के अनोखे दूत हैं.
शिवगर्जना की कहानी 10 साल पुरानी है. दल के संस्थापक सदस्य गोपाल कुंटे बताते हैं, "यहां सिडनी में गणेश पूजा के वक्त जब यात्रा चलती थी तो बड़ा खाली लगता था क्योंकि महाराष्ट्र में ढोल ताशे साथ चलते हैं. तब हम लोगों ने शिव गर्जना की स्थापना की."
ढोल-ताशे बजाने की यह परंपरा दरअसल शिवाजी महाराज के समय की है. तब युद्धों में सैनिकों की हौसलाअफजाही और उनका स्वागत करने के लिए ढोल बजाए जाते थे. लेकिन सिडनी में इस परंपरा को शुरू करके और फिर लगातार बनाए रखने के लिए शिवगर्जना ने खासी मेहनत की है. यशवंत गायकवाड़ कहते हैं कि सारे सदस्य अपनी तरफ से संसाधनों में सहयोग करते हैं और फिर जब कोई हमें परफॉर्म करने के लिए कहता है तो वो भी हमें सहयोग करता है, उसी राशि से ग्रुप चलता है.
लेकिन इस ग्रुप की सबसे दिलचस्प बात है इसकी महिला सदस्य. दीप्ति माडी कहती हैं कि ढोल एक रणवाद्य है इसलिए ऐसी अवधारणा है कि यह लड़कियों के लिए नहीं है. वह कहती हैं, "अब यह भ्रम टूट रहा है. भारत में ही नहीं, यहां सिडनी में भी बहुत सी लड़कियां ढोल बजा रही हैं, बजाना चाहती हैं."

Source: Vivek Asri/SBS
शिवगर्जना एक अनूठा दृश्य है जो विदेशी जमीन पर भारतीय आवाजों से रचा जाता है.
शिवगर्जना की कहानी 10 साल पुरानी है. दल के संस्थापक सदस्य गोपाल कुंटे बताते हैं, "यहां सिडनी में गणेश पूजा के वक्त जब यात्रा चलती थी तो बड़ा खाली लगता था क्योंकि महाराष्ट्र में ढोल ताशे साथ चलते हैं. तब हम लोगों ने शिव गर्जना की स्थापना की."
ढोल-ताशे बजाने की यह परंपरा दरअसल शिवाजी महाराज के समय की है. तब युद्धों में सैनिकों की हौसलाअफजाही और उनका स्वागत करने के लिए ढोल बजाए जाते थे. लेकिन सिडनी में इस परंपरा को शुरू करके और फिर लगातार बनाए रखने के लिए शिवगर्जना ने खासी मेहनत की है. यशवंत गायकवाड़ कहते हैं कि सारे सदस्य अपनी तरफ से संसाधनों में सहयोग करते हैं और फिर जब कोई हमें परफॉर्म करने के लिए कहता है तो वो भी हमें सहयोग करता है, उसी राशि से ग्रुप चलता है.
लेकिन इस ग्रुप की सबसे दिलचस्प बात है इसकी महिला सदस्य. दीप्ति माडी कहती हैं कि ढोल एक रणवाद्य है इसलिए ऐसी अवधारणा है कि यह लड़कियों के लिए नहीं है. वह कहती हैं, "अब यह भ्रम टूट रहा है. भारत में ही नहीं, यहां सिडनी में भी बहुत सी लड़कियां ढोल बजा रही हैं, बजाना चाहती हैं."

Source: Vivek Asri/SBS
शिवगर्जना एक अनूठा दृश्य है जो विदेशी जमीन पर भारतीय आवाजों से रचा जाता है.